आख्यान : प्रतिशोध में किया गया पवित्र कार्य भी शुभ फल नहीं देता

आख्यान : प्रतिशोध में किया गया पवित्र कार्य भी शुभ फल नहीं देता

सर्वेश तिवारी श्रीमुख, पौराणिक पात्रों और कथानकों पर लेखन

महाराज विश्वामित्र एक बार महर्षि वशिष्ठ से मिलने के लिए उनके आश्रम गए। वहां उन्होंने कामधेनु गाय की शक्ति देखी तो वह महर्षि वशिष्ठ से उसे मांगने लगे। महर्षि ने जब मना कर दिया तो वह युद्ध करने को तत्पर हो गए। कामधेनु गाय की शक्ति से विश्वामित्र पराजित हुए और उनकी समस्त सेना मार दी गई। एक बड़े साम्राज्य का शासक और महान योद्धा होने के बाद भी विश्वामित्र जब निशस्त्र महर्षि वशिष्ठ से पराजित हो गए, तो उन्हें लगा कि उनका क्षत्रित्व वशिष्ठ के ब्राह्मणत्व के आगे तुच्छ है। सो युद्ध में बचे अपने एकमात्र पुत्र को राज सौंप कर वे ब्राह्मणत्व की प्राप्ति के लिए तपस्या करने लगे।

विश्वामित्र की लम्बी तपस्या को देख कर देवराज इंद्र ने उनकी तपशक्ति की परीक्षा लेने के लिए अप्सरा मेनका को भेजा। ऋषि विश्वामित्र उस पर मोहित हो गए, और उनकी तपस्या भंग हो गई। तब वह दस वर्षों तक अप्सरा मेनका के संग गृहस्थ रूप में रहे। जब मेनका उन्हें छोड़ कर चली गई, तब उन्हें अनुभव हुआ कि वह ब्राह्मणत्व के योग्य नहीं। यदि एक अप्सरा के सौंदर्य पर मुग्ध हो वह अपने धर्म से डिग गए, फिर कैसा ब्राह्मणत्व? वह पुन: तपस्या में लग गए। जब लंबी अवधि बीत गई, तब देवराज ने पुन: उनकी परीक्षा के लिए रम्भा को भेजा। विश्वामित्र तब तक अपनी काम-वासना को जीत चुके थे, लेकिन उन्होंने क्रोध में रम्भा को हजार वर्ष तक पत्थर की मूर्ति हो जाने का शाप दे दिया।

विश्वामित्र ने काम को तो जीत लिया था, पर उन्होंने अनुभव किया कि वह पुन: पराजित हो गए। इस बार काम से नहीं, क्रोध से। रम्भा तो तपस्या की परीक्षा के बनाए गए नियमों के अनुसार ही उनके पास आई थी। उसे शाप देना उचित नहीं था। वे समझ गए कि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्हें अभी और कठिन तप करना होगा। हर ओर से दुर्गुणों से घिरा मनुष्य एक दुर्गुण से स्वयं को मुक्त करता है, तो दूसरे से पराजित हो जाता है। स्वयं को हर दुर्गुण से मुक्त कर लेना विश्वामित्र जैसे ऋषि के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य था। वे एक बार फिर लम्बी तपस्या में लीन हो गए। इस बार उन्होंने क्रोध को भी जीत लिया। अंतत: ब्रह्मदेव की कृपा से उन्हें ब्रह्मर्षि होने का वरदान मिला। पर क्या इतनी लम्बी तपस्या के बाद भी वे ब्रह्मर्षि हो सके? नहीं! क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी तपस्या ही वशिष्ठ से द्वेष के कारण की थी। किसी ईष्र्या या प्रतिशोध में किया गया पवित्र कार्य भी शुभ फल नहीं देता। तभी ब्रह्मदेव से वर पाने के बाद भी विश्वामित्र लोक में ब्रह्मर्षि की प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सके।